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Monday, March 31, 2014

                ॐ  विक्रमी सम्वत  क्यों ?

हमारे एक बहुत ही सज्जन और प्रेमी पडोसी मित्र हैं। सौभाग्यवश उनके दोनों पुत्र भी अपने माता-पिता कि तरह बहुत सज्जन एवं श्रेष्ठ नागरिक हैं।

आज प्रातः मैं अपने घर के बाहर बैठा अखबार पढ़ रहा था जब पडोसी मित्र ने आवाज़ लगाकर मुझे पुकारा और नव वर्ष विक्रमी संवत कि शुभकामनायें दीं।

साथ ही आगे बढ़कर उन्होंने मेरे पाँव छुए और आगामी समय के लिए अपने और अपने परिवार के लिए  आशीर्वाद माँगा। मैंने उन्हें अपने गले से लगाया और दिल से जितना हो सकता था उतना आशीषों  से नवाज़ा।

इस आनंदकारी प्रेममय मिलन के बाद मित्र ने कहा कि भाई साहब मैं 61 साल का हो गया और हर साल हम लोग  संवत पर दान-दक्षिणा देकर संतुष्ट हो जाते हैं ,पर मैं आज तक सिवाय इस बात के  कि यह हमारा हिंदुओं का नया साल है , इस बारे में और कोई ठोस जानकारी नहीं रखता। आप मेहरबानी करके मुझे इस बारे में विस्तार से समझाइये।

मैंने जो अपनी बुद्धि के अनुसार उन्हें बताया वो सभी विद्वान् पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ ,ताकि  जो भी कोई कमी रह गई हो उसे सुधारा जा सके।

मैंने उन्हें बताया ,:-

आज के समय में हमसभी भारतवासी हालांकि अंग्रेजी केलेण्डर के अनुसार ही जनवरीसे दिसंबर तक कि काल गणना वाला  साल मनाते हैं लेकिन भारत देश में हम हिन्दू कॉल गणना सौर मण्डल और उसमें घूम रहे ग्रहों कि  गति के अनुसार  सदियों पूर्व से करते आये  हैं।

हम सब जानते हैं कि सौर मंडल में 12 राशियां हैं।  हर राशि कुछ नक्षत्रों के समूह को माना जाता है। इन नक्षत्रों के समूह के काल्पनिक आकार के आधार पर  हर राशि को नाम भी दिया गया है।

ये वैज्ञानिक तथ्य है कि सौर मंडल की इन 12 राशियों का कुल विस्तार 360 डिग्री है। यानि प्रत्येक राशि का विस्तार 30 डिग्री है। वास्तविकता तो ये है कि सूर्य अपने स्थान पर स्थिर है और ये राशि मंडल और  बाकी के  ग्रह  अपने-अपने मार्ग पर सूर्य के चारों ओर घुमते रहते हैं  , लेकिन बोलने कि दृष्टि से अपनी सुविधा के लिए हम यह कहते हैं कि सूर्य इन राशियों में भ्रमण करता है।

प्रत्येक राशि में सूर्य का भ्रमण काल एक माह का होता है , इस प्रकार इन 12 राशियों में अपना भ्रमण पूरा करते-करते सूर्य  को पूरे 12 माह लग जाते हैं , यही 12 माह हमारा एक वर्ष का कालखंड कहलाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि  हमारा ये संवत सौरमंडल कि गति पर आधारित सम्पूर्ण वैज्ञानिक एवं प्रकृति के अनुकूल सही काल गणना  पर आधारित केलेण्डर है जिसे हम पंचांग के नाम से जानते हैं। 

Tuesday, December 31, 2013

गर्व का विषय

घमण्ड करना और अपनी सांस्कृतिक विरासतों पर गर्व करना दो अलग-अलग प्रवृत्तियां हैं।
जहां घमण्ड कि प्रवृत्ति मनुष्य को पतन की ओर धकेलती है वहीं अपनी संस्कृति और अपनी सामाजिक /राष्ट्रीय धरोहरों पर गर्व करना मनुष्य कि उन्नति का कारण बन सकता है।

घमण्ड मनुष्य कि व्यकतिगत अभिव्यकति है , उसकी अहम् कि पूर्ती का द्योतक ,
लेकिन गर्व उसकी समाज से जुडी उसकी भावनाओं का द्योतक है।

हर वो अच्छा भाव जो सामाजिकता का प्रतीक है , हमारे मन में एक नव  चेतना का संचार करता है ,और वो भाव हमारे अंदर हमेशा उत्साह जगाये रखता है।

और जीवन में उत्साह का बहुत बड़ा महत्त्व है।

इसलिए अपनी भारतीयता पर सदा गर्व करना लाभप्रद ही है।

शुभम अस्तु।

Sunday, November 3, 2013

तमसो मा ज्योतिर्गमय
दीपावली यानि दीपों की लड़ी

यानि दीपमाला या प्रकाश
इतना प्रकाश कि अमावस्या की घोर अंधियारी रात को भी प्रकाशित कर दें।
लेकिन मैं कुछ और ही सोचता हूँ ,  कि घोर अन्धकार में तो मैं स्वयं हूँ।
मेरे मन में तो  क्रोध , लोभ  , अहंकार , ईर्षा मोह आदि के  न जाने कितने अंधियारे छाये हुए हैं
उपनिषद हमें कह रहा है ,-तमसो मा  ज्योतिर्गमय ( अन्धकार से निकलकर प्रकाश की ओर चलो )
वेदों में उपनिषदों में या पुराणों में मनुष्य मात्र को सद -मार्ग पर ले जाने के लिए इशारे किये गए हैं ,
तरह-तरह से , कहीं पूजा के तरीकों से तो कहीं कहानियों से तो कहीं धर्म का लाभ बताकर मानव को सही मार्ग पर ले जाने का प्रयत्न किया गया है।
अन्धकार से निकलना मेरा कर्तव्य है , प्रकाश कि ओर आगे बढ़ना मेरा कर्त्तव्य है।
बुरी आदतों को छोड़ना , अच्छी आदतों को अपने अन्दर पैदा करना .
अपने मन में छाये बुराईयों के अन्धकार को दूर करना और मानव मात्र के प्रति प्रेम कि ज्योति जगाना ,
एवं अपने मन में प्रेम , उत्साह और आनन्द कि अखण्ड ज्योति जगाना मेरा परम धर्म है।
मैं जितना निर्विकार बनूंगा ,जितना आनंद में रहूँगा उतने अधिक सटीक मेरे निर्णय होंगे।
 जितने सही मेरे फैसले होंगे उतनी अधिक मैं अपनी नौकरी या कारोबार में तर्रक्की करूंगा।
यानि लक्ष्मी भी मिलेगी , और जितना अधिक मैं आनंदित होऊँगा  जितना अधिक मेरा मन प्रकाशित होगा उतनी अधिकस्थिर लक्ष्मी मुझे प्राप्त होगी।
समाज में मेरा मान - सम्मान मेरा यश मेरे सद - गुणों से बढ़ेगा।
इसलिए मैंने यह नतीजा निकाला कि सबसे बड़ी दिवाली अपने मन के  दुर्गुणों रुपी अन्धकार को  दूर करके अपने मन में सद -गुणों कि दीपमाला प्रकाशित करना है .
यही आदि काल से प्रचलित सनातनधर्म का सन्देश है।

( मैंने जो ऊट-पटांग मन में आया लिख मारा। अब ये सब पढ़ने के बाद आप क्या सोचते हैं। मैं कितना सही हूँ ,कितना गलत इसका निर्णय आपने करना है। इसलिए केवल पढ़कर ना रह जाएँ अपनी प्रतिक्रया अवश्य लिखें। मुझे अच्छा लगेगा )-उ ना द

Wednesday, October 30, 2013

आवा -गमन 

आज एक जगह पढ़ा, लेखक महोदय कहना चाह रहे थे कि अंत तो सब का एक ही है यानि "मृत्यु ".

मैं सोच में पड़ गया कि कमोबेश सभी इस असलियत से वाकिफ हैं कि अंत तो मृत्यु ही है लेकिन दुनिया  के हज़ार तरह के चक्करों में ऐसे फंसे रहते हैं कि सारी  फिलॉस्फी एक तरफ रख कर तरह-तरह के फन्दों  में उलझे रहते हैं।
प्रातः स्मरणीय परम पूज्य आदि शंकराचार्य ने कहा है :-

पुनरपि जन्मम , पुनरपि मरणम ,पुनरपि जननी उदरे शयनम्
भज गोविन्दम भज गोविन्दम ,भज गोविन्दम मूढ़मते।

कितना सुन्दर एवं सरल विश्लेषण किया है , जीवात्मा के आवा-गमन या जीवन चक्र का।
शंकराचार्य जी ने समझाया है कि जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में घूमता हुआ अपने कर्मों के फल भोगता रहता है।
माता के गर्भ में पड़ना , संसार में जन्म लेना ,कर्मों के फेर में पड़ना और फिर मृत्यु कि गोद में सो जाना यही जीवन का क्रम है।

मनुष्य कर्मों के फेर में ऐसा उलझता है कि सब कुछ जानते बूझते भी सही मार्ग नहीं अपना पाता। इसीलिए मूढ़मति या मूर्ख कहलाता है।

कई बार प्रश्न उठता है कि सही मार्ग जीवन में कौनसा है ?

सब कहेंगे कि सही मार्ग तो एक ही है , यानि धर्म का मार्ग।

अब सवाल होगा कि कौनसा धर्म ?

तो ये जान लें कि धर्म सम्पूर्ण विश्व में एक ही है , हाँ पूजा पद्धतियां अनेकों हैं।

विडमबना  ये है कि सब लोग अपनी-अपनी पूजा पद्धति को ही धर्म मान बैठते हैं।


कोई भी पूजा पद्धति वाला सम्प्रदाय हो मूल सिद्धांत वही हैं जो इंसानियत को प्रकाशित करने में मदद करने वाले हैं :-

झूठ मत बोलो

पराये धन पर नज़र मत रखो

संयम का पालन करो

लालच से बचो

क्रोध सब बुराइयों का बाप है , आदि-आदि दस सिद्धांत हैं जो हर सम्प्रदाय के  द्वारा अपनाने को कहे जाते हैं।

लेकिन या तो कर्मों के बंधन में जकड़ा जीव इन सिद्धांतों को भुलाये रहता है या अपने घमंड के नशे में डूबा व्यकति अपने स्वार्थ में ऐसा डूबा रहता है कि उसे किसी सिद्धांत कि परवाह नहीं रहती।

यही आवा-गमन का कारण है।

जो व्यकति इंसानी सिद्धांतों का सम्मान करता है , वो धीरे-धीरे कर्म-बंधनों से छूटता हुआ अंत में मुक्त हो जाता है।

विषय बहुत बड़ा और गहरा है जिसे मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार थोड़े में बताना चाहा है , जिसमें कमियां रह जाना एक मामूली बात है अतः कमियों को सिद्धांत की कमी ना मानकर ,मेरी कमी समझा जाये।

इति शुभम।

( आप सब इस लेख को पढ़ कर अपने मन के अनुसार जो विचार बनाएं , उन्हें केवल सोच कर ना रह जाएँ बल्कि उन्हें लिख कर व्यकत अवश्य करें ताकि एक अच्छी चर्चा आगे बढ़ सके।  धन्यवाद -उ ना द

Tuesday, May 21, 2013

मैं और मेरा ये शरीर 

 बहुत विद्वान् एवम आध्यात्म की कई सीढियां चढ़ चुके मेरे एक बहुत पुराने मित्र , बहुत अधिक बीमार थे। बहुत दिन हो गए , किन्तु कोई इलाज फायदा पहुंचाता नज़र नहीं आ रहा था। बच्चे एक हस्पताल से दूसरे  हस्पताल , एक डाक्टर से दूसरे  डाक्टर के पास ,बाप को जल्द से जल्द स्वस्थ करने  के लिए , चक्कर लगा रहे थे। आज के हालात को देखते हुए , हम सब समझ सकते हैं कि खर्च भी  लाखों में हो रहा था , लेकिन खर्च की किसी को कोई चिन्ता  नहीं थी ,चिन्ता  थी तो केवल अपने  पिता के  स्वास्थ्य की।यह सब उनका अपने पिता के प्रति अत्याधिक प्रेम या अनुराग के ही कारण था ,ऐसा कह सकते हैं , क्योंकि उनके पिता की कोई ऐसी लम्बी-चौड़ी जायदाद भी नहीं थी कि जिसके लिए उन्हें कोई दिखावा करना ज़रूरी होता।

मुझे जब उनके अस्वस्थ होने का समाचार उनके बड़े पुत्र से मिला तो मैं भी उन्हें मिलने उनके घर गया। जब वो अस्पताल पहुंचे तो अस्पताल भी गया।जब तक वो होश में होते थे सब से केवल भगवत चर्चा ही करना चाहते थे , अपनी बिमारी की चर्चा करना बिलकुल भी पसंद नहीं करते थे , केवल हस्पताल में डाक्टर के पूछने पर बिमारी से सम्बंधित जवाब दे देते थे वरना केवल भजन ही सुनना पसंद करते थे।अतः उनकी धर्मपत्नी ने उनके बैड के पास सी डी प्लेयर लगा रखा था जिस पर धीमे-धीमे भजन बजते रहते थे और वो खुद वो भजन मन ही मन दोहराते रहते थे।

एक दिन जब मैं उनके पास बैठा था ,  उनकी छोटी बहिन अपने पति के साथ उनसे मिलने आ पहुंची।मेरे मित्र अपने सभी भाई-बहनों और अपने सभी इष्ट-मित्रों से हमेशा से बड़ा  स्नेहपूर्ण  व्यवहार करते थे ,किन्तु अपनी इस छोटी बहन से उनका कुछ अधिक ही लगाव था।जहां तक मेरा ख्याल है ये अतिरिक्त लगाव इस बहन की गहन धार्मिक सोच के ही कारण था।इस बहन का मन उस समय साठ वर्ष की उम्र में भी एक दम सरल था।

बहन अपने भाई की बिमारी से बिगड़ी हालत को देख कर बहुत दुखी हो उठी।सीधे जाकर भाई के जर्जर शरीर से लिपट कर रोने लगी। मैंने  देखा कि मेरे मित्र उस अवस्था में भी हलके से मुस्करा रहे थे।उन्होंने धीरे से अपना बायाँ हाथ छोटी बहन की पीठ पर पर रखा और  धीरे-धीरे सहलाने लगे।उनके दायें हाथ में ग्लूकोज़ की सुई लगी हुई थी।उनकी हालत को देखते हुए घर पर ही एक नर्स की देख-रेख में ग्लूकोज़ चढ़ाए रखने का प्रबन्ध किया गया था।कहीं ग्लूकोज़ की सुई चुभ ना जाए या हिल ना जाए इस डर से उसके पति उसे मित्र से अलग करने को आगे बढे , किन्तु मित्र महोदय ने अपने बहनोई को ऐसा करने से रोक दिया ,और धीरे-धीरे छोटी बहन की पीठ सहलाते रहे।जब बहन का मन हल्का हो गया तो वो सीधी होकर बैठ गयी।

जब बहन पानी पीकर स्वस्थ मन हो गई तो मित्र ने उसके बच्चों और उसके पोते-दोहते के बारे में पूछना शुरू  कर दिया।

बहन कहने लगी ,  ''वाह भाई साहब  , आप भी खूब हो , आई मैं हूँ आपका हाल जानने और अपना हाल बताने के बजाये आप मेरा और मेरे परिवार का ही हाल जानने में लग गए।"

मित्र बोले, " मैं बहुत प्रसन्न हूँ , न कोई काम ना कोई काज बस पड़े-पड़े भगवान् के भजन सुनता रहता हूँ , इससे बढ़िया और क्या होगा , अब तू आ गई है  तो और भी अधिक खुश  हूँ।"

बहन : " लेकिन आपका शरीर तो एकदम कमज़ोर हो गया है।"

मित्र :  " तो तू इस शरीर की बात कर रही है , मैं समझा मेरी बात कर रही है, अब अगर शरीर की बात करनी है तो अपनी भाभी से या अपने भतीजों से कर ।" कह कर मित्रवर आँख मूँद कर चुप कर गए। कुछ देर चुप रहने के बाद अपनी पत्नी से बोले ," इसे कुछ भोजन आदि कराओ सुबह -सुबह अपने घर से भूखी-प्यासी निकली होगी।" फिर अपने बहनोई से बोले , " आप भी आराम कीजिये सफ़र में थक गए होंगे।"
और ये कह कर करवट बदल कर लेट गए। यानी बात ख़त्म।

लेकिन उनकी बहन भी आखिर उनकी ही बहन थी। वो कहाँ यों उनका पीछा छोड़ने वाली थी ,बोली ," भैय्या , मैं अभी चाय नाश्ता लेकर फिर आपके पास आकर बैठूंगी , फिर आप मुझे यों ही नहीं टाल  पायेंगे।"

उन्हें इस प्रकार करवट लेकर बात ख़त्म करते देख मैं भी वहाँ से उठकर अपने घर लौट आना चाहता था , किन्तु मित्र की बहन का प्रेमपूर्ण आग्रह देख कर रुक गया , मन में एक जिज्ञासा हुई कि देखें , बहन को क्या जवाब देते हैं .। मैं हैरान भी था कि  एकदम चुप रहने वाला रोगी आज बात कर रहा था।

                                   ( मैं किसी का भी नाम जानबूझ कर नहीं लिख रहा हूँ )

मित्र की बहन भोजन आदि से निवृत होकर फिर भाई के पास आ बैठीं। इतने में उनके दोनों भतीजे भी डोक्टर के पास से रिपोर्ट आदि दिखा कर लौट आये।बुआ को आया देख मित्र के दोनों पुत्र बुआ से लिपट कर रो पड़े।अब सीन उलटा था , बुआ की बजाय उसके भतीजे रो रहे थे और बुआ उन्हें चुप करा रही थी।

( यहाँ यह भी बताता चलूँ कि दोनों पुत्र कोई छोटे बच्चे नहीं हैं , बड़ा 52 साल का और छोटा 48 साल का है। दोनों सफल कारोबारी हैं , जिन्होंने अपना कारोबार खुद अपने दमखम पर खडा किया है और जवान औलाद के बाप हैं , किन्तु पिता के मोह में एकदम बौखलाए पड़े हैं।)

बड़ा बेटा बुआ से बोला , " बहुत अच्छा किया बुआ जो आप आगईं ,बाबूजी को कुछ समझाइए , हमारी तो ये कुछ सुनते ही नहीं हैं , डाक्टर का कहना है कि ये ठीक ही नहीं होना चाहते , और जब तक ये खुद ठीक होना नहीं चाहेंगे , मेरी कोई दवा, कोई इलाज इन्हें ठीक नहीं कर सकता। "

" भाई ये तो सरासर इलज़ाम है , तुम लोग जो दवा देते हो खा लेता हूँ , जितने इंजेक्शन लगवाते हो चुपचाप लगवा लेता हूँ , ये लड़की मेरे सर पर दिन-रात ग्लूकोज़ चढाने को बैठा रखी है , मैंने कभी कोई ऐतराज़ नहीं किया इसपर भी अगर तुम लोग मुझसे शिकायत रखोगे तो ये तो मुझ पर सरासर ज्यादती ही होगी।"

बिमारी के इतने दिनों में मैंने आज पहली बार मित्र महोदय को इतनी बात करते सुना था।

" फिर डाक्टर क्यों ऐसा कह रहा है ? " बहन ने नया प्रश्न किया

" अरे डाक्टर तो ऐसा कहेगा ही , उसे पैसे चाहियें , और ये दोनों मेरे भोलेनाथ उसकी खूब जेब गरम करते जा रहे हैं।"

" देख लो बुआ , क्या कह रहे हैं बाबूजी , हम क्या यों ही मुफ्त में हस्पताल वालों को पैसे दे रहे है , आखिर बाबूजी का इलाज भी तो कराना है , ये तो यही चाहते हैं कि हम हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाएँ ना इन्हें कोई दवा दें और ना ही इनका कोई इलाज कराएँ , आप ही बताओ बुआ , क्या ऐसा हो सकता है ? हमसे इनका कष्ट बिलकुल  नहीं देखा जाता ।" बड़ा पुत्र बड़े दुखी स्वर में बोला।

" बेटा , तुम बिना वजह ही परेशान हो रहे हो , मैं बहुत आनन्द में हूँ।"

" कैसी अजीब-अजीब बातें कर रहे हो भैय्या , आपका शरीर बिमारी के कारण सूख कर ढांचा मात्र रह गया है , डायबिटीज़ आपकी काबू नहीं आ रही , किडनी पर भी असर आने लगा है , लीवर सूज रहा है और आप कह रहे हैं की आप आनन्द में हैं।" बहन दुखी हो कर बोल उठी।

"इनकी यही सब बातें हम लोगों की समझ से बाहर हैं।" इस बार छोटा पुत्र बोला।

" अच्छा एक बात बता , तूनें अपनी नयी कार क्यों खरीदी ? " मित्र अपना पेट का दर्द छिपाने की कोशिश करते हुए अपने छोटे पुत्र से बोले।

" ये क्या बात हुई , बात आपके इलाज की हो रही है और आप नई  कार का ज़िक्र ले बैठे , पहले तो कभी आपने नई कार खरीदने पर अपना ऐतराज़ नहीं जताया और फिर गाडी तो आपकी सहमति से ही ली गई थी।" छोटा पुत्र बहुत परेशानी से बोला।

" तुम मुझे गलत समझ रहे हो , नई कार खरीदने से मुझे कोई ऐतराज़ ना पहले था और नाहीअब है , तुम इस बात को छोडो और मैंने जो पूछा उसका जवाब दो , तुमने नई कार क्यों खरीदी ? "

" क्योंकि पुरानी कार अब बहुत खराब हो चुकी थी। "

" लेकिन तेरा गैराज वाला तो हर बार उसे ठोक पीट कर चालू कर ही दिया करता था। " मित्र बोले।

" उसका क्या उसका तो काम ही है पुरानी से पुरानी गाडी को चालू कर देना , चाहे फिर कुछ दिन बाद फिर से कोई और बखेड़ा पैदा हुआ खडा हो।"

" यानी रोज़-रोज़ खराब हो जाने वाली उस पुरानी और नाकारा गाडी से तंग आकर तूने उस से अपना पीछा छुडाया और उस पुरानी गाडी की जगह नई गाडी ले आया।"

" तो फिर मुझे क्यों तंग कर रहे हो कि अपने इस पुराने वाहन को घसीटे जाऊं , मैं भी तो अपने लिए नयी गाडी चाहता हूँ। " मित्र एक बहुत ही क्षीण मुस्कुराहट के साथ बोले।

मैं एकदम सन्नाटे में आ गया।

सब मुंह बाए उनको ताके जा रहे थे।

फिर उनकी बहन बोल पड़ी ," पर भैया , आपका दर्द आपका कष्ट भी तो किसी से नहीं देखा जाता। "

" यही तो समझ का फेर है , कष्ट मुझे नहीं है , पुराने और जर्जर हो चुके इस शरीर को है जो मेरे अब किसी काम का नहीं रह गया है , ना मैं भगवान् का भजन कर पा रहा हूँ और ना ही इस नाकारा शरीर से किसी ज़रूरतमंद की कोई सेवा ही कर सकता हूँ। तुम लोग अपने दिल से यह वहम निकाल दो कि शरीर के कष्ट से मुझे कोई परेशानी है , जब तक मेरेआसपास  प्रभु नाम संकीर्तन चल रहा है मैं पूर्ण आनन्द में हूँ , शरीर के ये सब विकार इसके छूटने की तैय्यारी है। लेकिन नए - नए इलाज कर के तुम मेरा यह  पुराना शरीर छूटने  नहीं दे रहे , इतने दिन केवल तुम्हारे मन की ख़ुशी के लिए मैं चुप रहा हूँ ,तुम जो इलाज करते  रहे , करवाता रहा हूँ , लेकिन अब अगर तुम मेरी खुशी  चाहते हो तो ये सब बंद करवा दो, ताकि मेरा यह पुराना शरीर मझ से छूट सके और फिर मुझे एक और नया शरीर मिल सके । "

" लेकिन भैया , जब शरीर में कष्ट है तो आप कैसे आनन्द में हो सकते हैं ? "

" क्योंकि मैं यह शरीर नहीं हूँ , मैं तो अजर-अमर आत्मा हूँ जो शरीर की सहायता से अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है। क्या गीता का उपदेश भूल गई ?

गीता मैंने कई बार पढ़ी है , गीता के ज्ञान से आनन्दित भी बहुत हुआ हूँ , लेकिन गीता के ज्ञान को सही मायने में कभी जी नहीं पाया ,यह बात मेरी समझ में आ गई और अपनी शर्मिन्दगी  में डूबा मैं चुपचाप वहाँ से उठकर अपने घर चला आया।

गीता के ज्ञान को  को इतने अच्छे तरीके से अपने जीवन में उतारने वाला व्यक्तित्व मैंने अपने 72 साल के जीवन में पहली बार देखा।

इति।


यह सच्चा वृत्तान्त पढ़ कर आप को कैसा लगा। आप के अमुल्य विचार जानकार मुझे बहुत ख़ुशी मिलेगी।
कृपया अपनी राय , चाहे वह कुछ भी हो , अवश्य लिखें। अग्रिम धन्यवाद।-उपेन्द्र








Thursday, May 9, 2013

कर्मों की चुभन 

बहुत बार या अधिकतर घर से बाहर जाते समय भी बाथरूम स्लिप्पर ही पहन कर बाहर निकल जाता  हूँ।असल में जूती टूट गई है ,और नई  मैंने ली नहीं।

काफी दिनों से चलते हुए  पाँव में ( कभी एक पाँव में और कभी दुसरे तो कभी-कभी दोनों में ) चुभन सी महसूस करता था , सोचता था कि  घर लौटकर , आराम से बैठकर देखूंगा कि ये चुभन कैसी है ?क्या है जो पांवों को चुभता रहता है ?  लेकिन फिर घर लौटने के बाद , चप्पल से पाँव बाहर निकल जाने के बाद , चुभन भी  दिमाग से निकल जाती थी।

लेकिन आज सुबह जब प्राणायाम और ध्यान  आदि के बाद बैठा था , तो यों ही कई प्रकार के सुन्दर-सुन्दर विचार मन -मंदिर में घुमड़ने लगे और फिर अचानक मेरा ध्यान चप्पल की ओर खिंचा।याद आ गई पैरों की चुभन और याद आया कई बार किया हुआ अपने से वादा।

अतः मैंने दोनों चप्पलों को उठाया और बारी-बारी से दोनों चप्पलों के तलुओं को बारीकी से जांचना शुरू किया।

मैंने पाया कि दोनों चप्पलों के तलुओं में छोटे-छोटे कील और कंकर अन्दर तक धंसे हुए थे। इन्हीं छोटी-छोटी कीलों और काँकरियों के नुकीले सिरे मेरे पावों  में चुभ रहे थे।

मैंने एक -एक कर के इन काँकरियों और कीलों को चप्पलों के तलुवों से निकालना शुरू किया। मैंने पाया कि रास्ते में आते-जाते चप्पल के तलुओं में लगी ये कंकरियाँ एवं कीलें इतनी अधिक अन्दर तक चप्पल के तलुवों में धंसी थीं कि  इन्हें चप्पल के तलुओं से निकालना आसान नहीं था , बल्कि बहुत ही मुश्किल काम था।लेकिन अब काम हाथ में लिया था तो पूरा तो करना ही था ,अतः एक-एक करके बड़ी मुश्किल से ये कंकरियाँ और कीलें चप्पल से निकाल पाया।बहुत अधिक मेहनत लगी और समय भी बहुत लगा , लेकिन अब मेरी चप्पलें सारी  कष्टदायक कीलों और काँकरियों से मुक्त थीं। मैंने सारी  काँकरियों और कीलों को समेटा और कूड़ेदान में डालकर उनसे छुटकारा पाया।

इन सब  काँकरियों  और कीलों को  फैंक कर जब मैं वापिस अपने शयनकक्ष में पहुंचा तो अचानक जैसे मुझे किसी ने मेरा कन्धा  पकड़ कर झकझोर दिया। कोई अदृश्य आवाज़ मुझे कुछ कहने लगी।मैंने ध्यान से सूना , तो मैंने पाया कि यह मेरी अपनी आत्मा की आवाज़ थी जो मुझे कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण बातें बता रही थी।

आत्मा का कहना था ,
                               
                                  "आज तूने इन चप्पलों पर ध्यान दिया तो तूने समझ लिया कि रास्ते में आते-जाते ना जाने कितने कील और कंकर इनके तलुवों में चुभते रहे थे और समय के साथ ये कीलें और कंकर चप्पल के तलुवों में अन्दर ही अन्दर बहुत गहरे धंसते चले गए , यहाँ तक कि ये पाँव में चुभने लगे , पाँव को कष्ट भी  देने लगे।पाँव में कष्ट होता रहा किन्तु तेरे आलस के कारण और तेरी लापरवाही के कारण इनकी वज़ह से हो रहा कष्ट बढ़ता ही गया।यदि तूने पहले ही इन पर ध्यान दे लिया होता तो ये कंकरियाँ और ये कीलें चप्पल के तलुओं में ज़्यादा भीतर तक नहीं धंसतीं और निकालने की कोशिश करने पर आसानी से और जल्दी निकाल फैंकी जा सकतीं। "

                                 " इन राहों पर तो रोज़ चलना है। अतः ये कीलें और कंकरियाँ भी रोज़ ही चुभा करेंगी।ज़रुरत है , इन्हें रोज़ के रोज़ चप्पल से , बिना ज़्यादा अन्दर धंसने  का मौका दिए  , निकाल फैंकने की ,ताकि चप्पल भी सुरक्षित रहे और पाँव को भी कष्ट ना हो।"

                                 " और फिर यही हाल तो हमारे जीवन का है , जीवन के सफ़र में ना जाने कितनी मीठी-कडवी घटनाओं से हमारा रोज़ वास्ता पड़ता है। इन मीठी कडवी यादों को हम अपने दिल में संजोये रखते हैं। हमें पता भी नहींचालता और ये यादें हमारे मन - बुद्धी - अहंकार को कचोटती रहती हैं।हम इनकी टीस की पीड़ा को
सहते रहते हैं , दुखी होते रहते हैं और इन यादों के  द्वारा दी जा रही टीसों को झेलते हुए  दुखों से भरा  जीवन दूसरों को कोसते हुए ढोते  चले जाते हैं।"

                                                        
                                   " ज़रूरत है इन मीठी -कडवी घटनाओं की यादों को मन से उखाड़ फैंकने की ताकि ये हमारे मन में अन्दर तक ना धंस पाएं , हमें दर्द की टीस में ना डुबो पाएं। और हम सुख पूर्वक जीवन जी सकें।"

                                   " अतः ज़रूरी है कि हम वर्तमान में जीना सीखें।"


                                   " ताकि कर्मों की चुभन से बच सकें।"